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Blog / 26 Dec 2019

(राष्ट्रीय मुद्दे) महिला उत्पीड़न और निदान (Women Harassment and Solution)

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(राष्ट्रीय मुद्दे) महिला उत्पीड़न और निदान (Women Harassment and Solution)


एंकर (Anchor): कुर्बान अली (पूर्व एडिटर, राज्य सभा टीवी)

अतिथि (Guest): पी. के. मल्होत्रा (क़ानून मंत्रालय में सचिव), सत्य प्रकाश (वरिष्ठ क़ानूनी पत्रकार)

चर्चा में क्यों?

पिछले 18 दिसंबर को सर्वोच्च न्यायालय ने निर्भया गैंगरेप और हत्याकांड के 4 दोषियों में से एक, अक्षय ठाकुर की पुनर्विचार याचिका को खारिज कर दिया। उसी दिन दिल्ली की पटियाला हाउस कोर्ट ने तिहाड़ जेल के अधिकारियों को निर्देश दिया कि वे सभी चारों दोषियों से पता करें कि दोषी राष्ट्रपति के सामने दया याचिका दायर करेंगे कि नहीं। इसके लिए दोषियों को 7 दिन का समय दिया गया है। ग़ौरतलब है कि इस मामले में अदालत द्वारा तीन अन्य मुजरिमों की पुनर्विचार याचिका पहले ही खारिज किया जा चुका है। इस मामले की सुनवाई के लिए अगली तारीख 7 जनवरी तय की गई है।

क्या है मृत्यु दंड की प्रक्रिया?

किसी भी जघन्य अपराध के लिए जब किसी ट्रायल कोर्ट द्वारा सजा सुनाया जाता है तो इसकी पुष्टि किसी उच्च न्यायालय द्वारा होनी जरूरी होती है। इसके बाद सज़ायाफ्ता के पास सुप्रीम कोर्ट जाने का, और अगर वहां से भी बात नहीं बनी तो अनुच्छेद 137 के तहत सप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका दायर करने का विकल्प होता है। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट में ही उपचारात्मक याचिका यानी क्यूरेटिव पिटिशन लगाना और फिर राष्ट्रपति के पास दया याचिका दायर करने का आख़िरी विकल्प होता है। इन सभी जगह से निराशा हाथ लगने के बाद कोर्ट द्वारा सजायाफ्ता के लिए डेथ वारंट जारी किया जाता है उसके बाद अपराधी को फांसी चढ़ा दिया जाता है।

क्या मृत्युदंड से बलात्कार पर लगेगा लगाम?

अगर आंकड़ों पर नजर डालें तो फांसी की सज़ा के साथ-साथ बलात्कार की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। नैशनल लॉ यूनिवर्सिटी के एक रिसर्च के मुताबिक़ दिसंबर 2018 तक भारत की अलग- अलग जेलों में बंद 426 लोगों को मौत की सज़ा सुनाई गई है। साल 2017 में यह संख्या 371 थी। वहीं दूसरी तरफ, नेशनल क्राइम रेकॉर्डस ब्यूरो (NCRB) के ताज़ा आंकड़ों के मुताबिक भारत में इस वक़्त हर 15 मिनट में बलात्कार की एक घटना दर्ज की जाती है।

  • इस बात का कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं है कि मृत्युदंड देने या इसके भय से बलात्कार की घटनाओं पर लगाम लग रहा है। बल्कि उसके विपरीत इन आपराधिक घटनाओं की संख्या में लगातार वृद्धि ही दर्ज की जा रही है। जानकारों का कहना है कि मृत्युदंड के मुकाबले आजीवन कारावास की सजा ज्यादा प्रभावी रही है। मौत की सज़ा की मांग महिला सुरक्षा के मूल मुद्दे से ध्यान भटकाने और जनआक्रोश को शांत करने का एक आसान तरीका बनता जा रहा है।
  • जज भी इंसान ही होते हैं और उनसे भी गलती होने की संभावना रहती है। मौत एक ऐसी सज़ा है जो अगर दे दी गई और बाद में पता चला कि न्याय प्रक्रिया में गलती हुई थी और व्यक्ति कसूरवार नहीं था, ऐसी हालत में किसी सुधार, संशोधन या बदलाव की कोई गुंजाइश नहीं रह जाती।
  • सिर्फ़ फांसी देने से पितृसत्तात्मक सोच ख़त्म नहीं होने वाली है। बल्कि इससे पुलिस की तफ़्तीश का ख़राब स्तर और पूरी न्यायिक व्यवस्था में भरी ‘विक्टम शेमिंग’ या पीड़िता को दोषी ठहराने वाली सोच से ध्यान भटक जाएगा। हमें इन दो बिंदुओं पर काम करने की काफी जरूरत है।
  • भारतीय न्याय व्यवस्था में पारंपारिक तौर पर एक अजीब सी प्रवृति ने जन्म ले लिया है। इसमें पीड़िता के पुनर्वास को ज़्यादा महत्व देने के बजाय अपराधी को कड़ी-से-कड़ी सज़ा देने की ज्यादा ललक दिखती है। रतन सिंह बनाम स्टेट ऑफ़ पंजाब के एक मामले में सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस कृष्णा अय्यर ने कहा था कि भारतीय क़ानून प्रक्रिया अपराधी को सज़ा देने के चक्कर में पीड़ित और क़ैदी के परिजनों - दोनों के ही हितों को अनदेखा कर देती है। व्यवस्था की इस कमी को दूर करने के लिए एक नए कानून की जरूरत है। यह बात दूसरे अन्य शोधों से भी स्पष्ट हो चुकी है।

कई बार ‘मीडिया ट्रायल’ की वजह से भी मृत्युदंड दे दिया जाता है

जब कोई जघन्य अपराध बहुत हाईलाइट हो जाता है तो ऐसी स्थित में मीडिया प्रेशर का यह असर अदालती सुनवाई पर भी पड़ता है। जबकि ऐसा होना नहीं चाहिए। जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है कि जज भी एक इंसान ही होता है और मीडिया दबाव या जनमत का प्रभाव उस पर भी हो सकता है। साथ ही, ऐसी स्थिति में सरकारें भी अपने लिए सुविधाजनक स्टैंड ले लेती हैं। फिर जजों के सामने जनाक्रोश को शांत करने के लिए फांसी के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचता। क्या इसे उचित न्यायिक प्रक्रिया कहा जा सकता है।

आखिर बलात्कार जैसे अपराधों पर रोक लगेगी कैसे?

वर्मा कमेटी की रिपोर्ट में साफ़-साफ़ बताया गया है कि महिला हिंसा से जुड़े मुद्दे क्या हैं। बेहतर पुलिसिंग और महिलाओं के पक्ष में एक सिस्टम तैयार करने की ज़रूरत है। लेकिन वर्मा कमेटी की सिफ़ारिशों को लागू करने के लिए सरकार द्वारा अभी तक कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया। यहां तक कि निर्भया फ़ंड का भी ठीक इस्तेमाल नहीं हो पाया है।

पीड़िता को ‘सामाजिक कलंक’ का डर: इस तरह की सोच को बदलने की जरूरत है।

पुलिस द्वारा की गई जांच: ढीली तरह से की गई जांच के चलते अभियोजन पक्ष का मामला कानूनी जांच के दायरे से बाहर रह जाता है।

फॉरेंसिक लैब की संख्या में कमी: इस तरह की सुविधाओं को बढ़ाना होगा ताकि अपराध दोष सिद्ध दर बढ़ाई जा सके और अपराधी को सजा मिले।

अदालतों में गवाह कई बार जिरह के दौरान पलट जाते हैं: ऐसे मामलों में गवाहों की सुरक्षा सुनिश्चित करना और उन्हें किसी और तरीके मसलन डर या लालच आदि से प्रभावित ना किया जा सके, इस तरीके की भी व्यवस्था करनी होगी।